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अतीक अहमद: कैसे बना अपराध जगत का बाहुबली, पढिए पूरी कहानी-

अतीक के गुनाहों की लिस्ट बहुत लंबी है। वह माफिया है, गैंग लीडर है, हिस्ट्रीशीटर है, बाहुबली है, दबंग है तो साथ ही आतंक का दूसरा नाम भी है, लेकिन इन सबके बावजूद पांच बार विधायक और एक बार फूलपुर सीट से सांसद भी रहा है।

चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अतीक को  उत्तर प्रदेश से बाहर की जेल में रखे जाने का आदेश दिया था। अतीक के बारे में कहा जाता है कि वह इतना शातिर और खूंखार है कि अपराध से लेकर कारोबार और दबंगई से लेकर सियासत तक में जो भी उसके रास्ते आया, उसका अंजाम उसकी मौत ही हुआ ।

तांगे वाले का बेटा बना अपराध का बादशाह

एक तांगे वाले का अनपढ़ बेटा अतीक पैसों की खातिर जुर्म की दुनिया में कदम रखने के बाद वह कुछ ही दिनों में अपराध जगत का बादशाह बन गया। अपने गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए उसने सियासत को कवच के तौर पर इस्तेमाल किया और अपराध व राजनीति के दम पर करोड़ों नहीं बल्कि अरबों का साम्राज्य खड़ा कर लिया।

एक वह दौर था जब अपराधी सियासत की शतरंजी बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल होते थे। अपराधियों के सफेदपोश बनने और अपराध के राजनीतिकरण के बदलाव वाले उस दौर में सबसे चर्चित नाम प्रयागराज के अतीक अहमद का है।

करीब 58 साल के अतीक अहमद के पिता हाजी फ़िरोज़ तांगा चलाते थे। बेहद मामूली घर के हाजी फ़िरोज़ की माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह अतीक समेत अपनी दूसरी औलादों को बेहतर तालीम दिला सकें।

अतीक के खिलाफ सन 1983 में जो पहली एफआईआर दर्ज हुई। उस वक्त उसकी उम्र महज़ अठारह साल थी। कुछ ही सालों में अतीक के गुनाहों की तूती बोलने लगी, तो वह जिले की क़ानून व्यवस्था के लिए खतरा बनने लगा। अतीक और पुलिस में लुकाछिपी का खेल आम हो गया था। एक वक़्त ऐसा भी आया जब अतीक और उसके करीबियों पर पुलिस इनकाउंटर में मारे जाने का खतरा मंडराने लगा।

अतीक का राजनीतिक सफर

पुलिस इनकाउंटर से बचने के लिए अतीक ने  1989 में हुए यूपी के विधानसभा चुनावों में इलाहाबाद वेस्ट सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर किस्मत आजमाई। उस दौर के हालात के चलते अतीक को चुनाव में कामयाबी भी मिल गई और वह विधायक बन गया।

इसके बाद वह इसी इलाहाबाद सिटी वेस्ट सीट से 1991, 1993, 1996 और 2002 में भी लगातार जीत हासिल करता रहा। पहला दो चुनाव वह निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीता। तीसरे चुनाव में भी वह आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर ही मैदान में उतरा, लेकिन सपा-बसपा गठबंधन ने उसे अपना समर्थन दिया और उसके खिलाफ कोई प्रत्याशी नहीं खड़ा किया।

1996 में वह समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधायक चुना गया तो 2002 में डा० सोनेलाल पटेल के अपना दल से। 2002 के चुनाव के वक़्त वह अपना दल का प्रदेश अध्यक्ष बना था और हेलीकाप्टर से यूपी में कई जगहों पर प्रचार के लिए गया था। साल 2004 में फिर से सपा में न सिर्फ उसकी वापसी हुई, बल्कि वह मुलायम सिंह की पार्टी से उस फूलपुर से सांसद चुना गया।

राजूपाल हत्याकांड 

25 जनवरी साल 2005 को प्रयागराज में एक ऐसी घटना घटी, जो न सिर्फ इतिहास बन गई, बल्कि उसने अतीक और उसके परिवार के सियासी करियर को तबाह करके रख दिया। 25 जनवरी 2005 को शहर के धूमनगंज इलाके में विधायक राजू पाल की दिन दहाड़े हत्या कर दी गई।

विधायक की हत्या का आरोप अतीक और उसके भी अशरफ पर लगा। इस मामले में दोनों भाइयों को जेल भी जाना पड़ा।  राजूपाल की हत्या के बाद सिटी वेस्ट सीट पर दूसरा उपचुनाव हुआ। और 2012 में अतीक को हार का सामना करना पड़ा।

अतीक ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रतापगढ़ से अपना दल के टिकट, 2014 में श्रावस्ती सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट, 2018 में फूलपुर सीट के उपचुनाव में आज़ाद और 2019 में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर वाराणसी सीट से पीएम मोदी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन सभी जगह उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। श्रावस्ती को छोड़कर लोकसभा के बाकी तीन चुनावों में तो उसकी जमानत तक जब्त हो गई।

समाजवादी पार्टी  और अतीक अहमद के संबंध

समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और अतीक के संबंध बहुत गहरे ‌थे। अतीक ने भी सपा को बड़े बड़े फायदे पहुंचाए।  मुलायम सिंह यादव भी अतीक अहमद पर खासे मेहरबान थे। इस मेहरबानी के पीछे न केवल मुस्लिम-यादव का राजनीतिक समीकरण छिपा था, बल्कि अतीक अहमद का वह त्याग भी छिपा था, जो उसने साल 2003 में किया था।

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